रांची, 15 नवंबर ( आईएएनएस): । झारखंड की राजधानी रांची से 66 किलोमीटर दूर खूंटी जिले में जंगलों-पहाड़ियों से घिरा एक गांव है- उलिहातू। आज से ठीक 150 साल पहले इसी गांव में जन्मे बिरसा मुंडा ने ऐसी क्रांति का बिगुल फूंका था, जिसमें झारखंड के एक बड़े इलाके ने अंग्रेजी राज के खात्मे और ‘अबुआ राइज’ यानी अपना शासन का ऐलान कर दिया था। इन्हीं बिरसा मुंडा की जयंती पर आज पूरा देश जनजातीय गौरव दिवस मना रहा है।
उनकी 150वीं जयंती पर आज से जनजातीय गौरव वर्ष की भी शुरुआत हो रही है, जिसका समापन 15 नवंबर 2025 को होगा। 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा ने जिस क्रांति का ऐलान किया था, उसे झारखंड की आदिवासी भाषाओं में ‘उलगुलान’ के नाम से जाना जाता है। 1899 में उलगुलान के दौरान उनके साथ हजारों लोगों ने अपनी भाषा में एक स्वर में कहा था-‘दिकू राईज टुन्टू जना-अबुआ राईज एटे जना।’ इसका अर्थ है, दिकू राज यानी बाहरी राज खत्म हो गया और हम लोगों का अपना राज शुरू हो गया।
बिरसा मुंडा ऐसे अप्रतिम योद्धा थे, जिन्हें लोग भगवान बिरसा मुंडा के रूप में जानते हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि बिरसा मुंडा के उलगुलान से घबराई ब्रिटिश हुकूमत ने खूंटी जिले की डोंबारी बुरू पहाड़ी पर जलियांवाला बाग से भी बड़ा नरसंहार किया था। रांची स्थित ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट में भगवान बिरसा मुंडा और अन्य जनजातीय नायकों की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका पर शोध करने वाले विवेक आर्यन बताते हैं, ‘बिरसा मुंडा जब स्कूल के छात्र थे, तभी उन्हें यह बात समझ आ गयी थी कि ब्रिटिश शासन के चलते आदिवासियों की परंपरागत व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है। उन्होंने विरोध की आवाज बुलंद की, तो 1890 में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। इसके बाद उन्होंने गांव-गांव घूमकर आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करना शुरू किया। आदिवासी सरदार उनके नेतृत्व में एकजुट हुए तो अंग्रेजों की पुलिस ने 24 अगस्त 1895 को चलकद गांव से उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
इतिहास के दस्तावेजों के अनुसार 19 नवंबर 1895 को भारतीय दंड विधान की धारा 505 के तहत उन्हें दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।’ 30 नवंबर 1897 को जब वे जेल से बाहर आये तो खूंटी और आस-पास के इलाकों में एक बार फिर मुंडा आदिवासी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एकजुट हो गये। बिरसा मुंडा ने 24 दिसंबर, 1899 को उलगुलान का ऐलान कर दिया। घोषणा कर दी गई कि जल, जंगल, जमीन पर हमारा हक है, क्योंकि यह हमारा राज है।
जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में उलगुलान की चिंगारियां फैल गईं। 9 जनवरी, 1900 को हजारों मुंडा तीर-धनुष और परंपरागत हथियारों के साथ डोंबारी बुरू पहाड़ी पर इकट्ठा हुए। इधर, गुप्तचरों ने अंग्रेजी पुलिस तक मुंडाओं के इकट्ठा होने की खबर पहले ही पहुंचा दी थी। अंग्रेजों की पुलिस और सेना ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। हजारों की संख्या में आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। अंग्रेज बंदूक और तोप चला रहे थे और बिरसा मुंडा और उनके समर्थक तीर बरसा रहे थे। डोंबारी बुरू के इस युद्ध में हजारों आदिवासी बेरहमी से मार दिए गए।
स्टेट्समैन के 25 जनवरी, 1900 के अंक में छपी खबर के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ी खून से रंग गई थी। लाशें बिछ गयी थीं और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ी के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन विद्रोही बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए। इसके बाद 3 फरवरी 1900 को रात्रि में चाईबासा के घने जंगलों से बिरसा मुंडा को पुलिस ने उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वे गहरी नींद में थे। उन्हें खूंटी के रास्ते रांची ले आया गया। उनके खिलाफ गोपनीय ढंग से मुकदमे की कार्रवाई की गई।
उन पर मजिस्ट्रेट डब्ल्यू एस कुटुस की अदालत में मुकदमा चला। कहने को बैरिस्टर जैकन ने बिरसा मुंडा की वकालत की, लेकिन यह दिखावा था। उन्हें रांची जेल में बंद कर भयंकर यातनाएं दी गईं। एक जून को अंग्रेजों ने उन्हें हैजा होने की खबर फैलाई और 9 जून की सुबह जेल में ही उन्होंने आखिरी सांस ली। उनकी लाश रांची के मौजूदा डिस्टिलरी पुल के पास फेंक दी गई थी। इसी जगह पर अब उनकी समाधि बनाई गई है। बिरसा मुंडा ने जिस रांची जेल में प्राण त्यागे, उसे अब बिरसा मुंडा स्मृति संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है।